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नसीब

नसीब ----- नसीब है। मूर्त से अमूर्त। इंसान से भगवान। संघर्ष से पलायन। अकर्म से फल। युद्ध से समर्पण। अधिकार से आलस्य। विजय से भय। हत्या से परहेज। मस्तिष्क से हृदय। ईर्ष्या और लोभ। असंतुष्टता और खीझ। अवसर का अभाव। अन्याय को नमन। अतृप्त मन का देह। दोस्त से अप्रतिस्पर्द्धा। दुश्मन से दुराव। परंपरा का पालन। परिपाटी को प्रणाम। आशीर्वाद की आकांक्षा। जिंदगी का ठहराव। ‘होने’ का नहीं विरोध। प्रतिबंध मान्य। जातिप्रथा मानना सामान्य। धर्म ध्वजा फहराव। खुद से खुद का है भटकाव। -----------------

नये वर्ष का भाग्य

नये वर्ष का भाग्य -------------------------- दिन, महीने, वर्ष। सत्ता संघर्ष। पुन: गिड़गिड़ाएगा आदर्श। पल,छिन,घड़ी। स्वनाम धन्य मढ़ी। पुन: करेगा गड़बड़ी। लोभ,ईर्ष्या,स्वार्थ। लक्षित रहेगा पदार्थ। इंसान भुलाता रहेगा परमार्थ। शांति हेतु प्रार्थना। विफल रहेगा मानना। जन्मेगा पुन: नयी प्रताड़ना। अभिमान और अहंकार। गलियों में गुजरेगा साकार। जश्न मनाएगा पुन: संहार। विषाद,व्यथा,दर्द। सम्पूर्ण और अर्द्ध। निगलता रहेगा पुन: मर्द। अपना अपना भय। खुद से खुद का पराजय। आदमीयत पुन: करेगा क्षय। मन और तन की नग्नता। धर्म व संप्रदाय की भग्नता। बनाए रखेगा पुन: संलग्नता। हथियारों के नए नस्ल। उगाये जाएंगे जैसे कि फस्ल। आदमी के शक्लों से निकलेंगे पुन: नए-नए शक्ल। आँसू,आह और मर्मांतक कराह। क्रंदन,विलाप अथाह। हर रौशनी को करेगा पुन: स्याह। असमंजस में रिश्ते। गरीबी अमीरी के भिड़ते। जैसे रहे रिसते पुन: रहेंगे रिसते। स्वर्ग-सुख की भावना। अच्छे दिनों की कामना। मरेगी इनकी पुन: संभावना। सुख की अदम्य चाहना। ‘होगी कभी स्याह ना’। होगी कुंठित पुन: ये धारणा। --------------------------

औरतें

औरतें --------------------- झगड़ रहे बच्चों के झगड़े में बच्चों की परवाह दिखाकर झगड़ती औरतें। मातृत्व से स्खलित औरतें। माँ की हर सीख आत्मसात् करती पुत्रियाँ औरतें। माँ को अपना आदर्श बनाने को संकल्पित औरतें। आगत स्थितियों में माँ के निर्णय स्मरण करती परिपक्वता बरतती औरतें। सास के आदेशों की अवहेलना करती अपना व्यक्तित्व स्थापित करती बहू औरतें। गलत निर्णयों को व्याख्यायित करती जागरूक औरतें। जेठानी के नक्शे-कदम को साफ-सुथरा करती सहेली सी देवरानी औरतें। रसोई में अपना हक बनाती और बताती सुघड़ गृहस्थिन औरतें। ननद की परवाह करती अभिभावक औरतें। मर्यादा बताती और मर्यादा में परिवार को सीमित करती प्रबुद्ध औरतें। प्रतिकूल परिस्थितियों में पति के पास खड़ी पत्नी,सहयोगिनी मर्दानी औरतें। बुरे कर्म और बुरे विचार पर पतियों को भी धमकाती सयानी औरतें। बलात्कार और अपमान से बचने हेतु जौहर करती औरतें। वतन की बात आए तो तीर,तलवार,भाले,बम आदि हाथों में उठाती औरतें। सेवा,सुषुर्शा करीने से करती वत्सला औरतें। गृहस्थी संभालती लक्ष्मी सी गृहलक्ष्मी चंचला औरतें।

गजल

जितने शव थे मैंने ढ़ोए,और कफन ले गए वे। जितनी मौतें हैं मरा किए हम,दफन हो गए वे। ऊपर और ऊपर,इस ऊपर की कोई सीमा है क्या। इश्तहार की जगह चिपके हम और वतन हो गए वे। आपके वायदे तमाम शिकवा हुए जान सका तब । कि आप सत्ताविरोधी सत्ता हेतु थे जब कफन हो गए वे। सुवास उठा है तो हर सर झुका है जमीन तक गुल के लिए। बदन मेरा फूलों के लिए क्यारियाँ बने और चमन हो गए वे। ------------------------------------------------------------------
एक और आज़ादी -------------------------------------------------- सारे शब्द जो कैद थे किसी एक मुट्ठी में हो गया है बंधन मुक्त। सहला सके और देख सके भर नजर एकबार फिर। भिगो सके इसका सम्पूर्ण बदन चुंबनों से छू सके इसका अस्तित्व स्वतन्त्रता–युक्त।   उग आए थे इन दीवारों पर अनेक कान संगीनें ताने हमारे अपने घरों में बेपनाह। खड़े-खड़े ही पकड़कर एक-एक कान निकाल सके। और पुनर्प्रतिष्ठित कर सके मर्यादा के सारे श्वेत श्लोक मिटा सके सारे ही मारक अंतर्दाह।   आदमी , आदमी न रहा था हो गया था जैसे बकरियाँ और भेड़। चाहे जिधर हांक दो। जैसे शक , संदेह और विद्रोह का पर्याय। हो सके हम आदमी फिर से पूरी आदमीयत में मन और देह से।   तोड़ सके प्रथम सर्ग में ही ऊँचे बहुत ऊँचे तक खींचे हुए सारे ही मेड़।   महावत ने भालेनुमा अंकुश से ऐसे गोदा कि कवि कि कविता या कि आजादी के छंद रह न सके थे निरंकुश। हो गए थे वे मूक अथवा लगे थे करने अवांक्षित व झूठ की प्रशंसा। किन्तु महावत की निरंकुशता हमने तोड़ी। सारे ही सुर , तान , लय एक अंधी गुलामी से छूटी। एक नए युग की संरचना को
  नेता ----------------------------- शब्दों का संसार उठाकर   ले तो आऊँगा मैं। पूछो मुझसे किन्तु , क्या-क्या दे जाऊँगा मैं। आशाओं का विशद ‘ लिस्ट ’ जो कभी न पूरा होना है। प्रजातंत्र से तंत्र हटाकर तुमको दु:ख दे जाऊँगा मैं। हर प्रहार जो तुमपर होगा उफ् तक नहीं करूँगा मैं। पूछो मुझसे किन्तु , क्या-क्या   दे जाऊँगा मैं। समय तुम्हें बूढ़ा कर देगा , हर रग में पीड़ा भर देगा। मैं मुस्काऊँगा कवि हूँ मैं   एवम् तुम्हें लिखूँगा मैं। हर जुबान से झूठ कहूँगा हर सच को आँखें तरेर कर। अर्जदार तुम , अर्जी तेरी कभी , कभी न पढ़ूँगा मै। पूनम को भी बना अमावस तुमको तो सौंपूँगा मैं। शब्दों का संसार उठाकर तुमको तो दे जाऊँगा मैं। जातिवाद भी मैं ही दूँगा मैं ही दूँगा सामन्तवाद। मैं नेता हूँ धर्म , कर्म का आग तुम्हें सौंपूँगा मैं। श्रृँख़लाओं से भर दूँगा व्यथा , दर्द , पीड़ा से तुमको मैं ही इसे सृजन करता हूँ तेरा अश्रुकण देखूँगा मैं।   युद्ध की पीड़ा , शांति की हिंसा रोज उगाता आया हूँ। तुमको भोग लगाऊँगा। तेरा मन विचलित कर पाऊँ तब नेता कहलाऊंगा।     तुमको तुममें कैद करू
  हंसा हुआ दु ; ख -------------------------------------------------- वह हंसा , हँसते-हँसते रो गया अपनी व्यथा। पूरे संसार में , दु:ख झेलने की यही है प्रथा। क्यों रोते हो पूछ गया दुखी मन। हृदय के आघात दिखाकर सुखी हो गया पीड़ित तन।          ------------------------------------------------------ अरुण कुमार प्रसाद/19/6/22